Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


अंगूठी कीखोज

5

वृजांगना ने निश्चितता की साँस ली। इस समय वह अधिक संतुष्ट जान पड़ती थी क्योंकि मुझे मंदाकिनी भी पहिचानती थी।
मंदाकिनी फिर बोली, योगेश भैया, तुम्हारे दृढ़-निश्चयी स्वभाव को कौन नहीं जानता? तुमने जब ढूँढ देने की जिम्मेदारी ली है तब बिरजा भाभी की अँगूठी मिले बिना न रहेगी।
वृजांगना ने फिर मुझ पर विनयपूर्ण दृष्टि डाली, और वह उन सब स्थियों के साथ चली गई। उस दृष्टि से जैसे उसने कहा कि मेरी अँगूठी न भूलना; जरूर ढूँढ़ देना ।

उसी बेंच पर पड़े-पड़े मैंने रात काट दी। सबेरे चिड़ियों के चहचहाने के साथ ही उठ बैठा। अभी पूरा-पूरा प्रकाश भी नहीं हो पाया था; मैंने उत्सुक आँखों को एक बार चारों तरफ अँगूठी के लिए घुमाया। किंतु वह कहीं न दिखी। फिर मैंने झुककर बेंच के नीचे देखा। नन्ही-सी अँगूठी जिसमें एक कीमती बड़ा-सा हीरा चमक रहा था, बेंच के पाए से सटी पड़ी थी। मैंने झुककर अँगूठी उठा ली। प्रयत्न करने पर भी वह मेरी किसी ऊँगली में न आई। मैंने उसे जेब में रखकर नल पर जाकर हाथ-मुँह धोया और फिर सिविल लाइन की ओर चल पड़ा।

बंगला ढूँढ़ने में मुझे विशेष प्रयत्न न करना पड़ा; क्योंकि वृजांगना और उनके पति पं० नवलकिशोर जी दोनों ही नगर के लब्धप्रतिष्ठ व्यक्तियों में से थे। चपरासी से मैंने अपना कार्ड अंदर भिजवाया, जिसके उत्तर में स्वयं वृजांगना आती हुई दिखी। उस सादी सरलता की प्रतिमा वृजांगना के प्रथम दर्शन में ही मैं उसका भक्त हो गया। वह मुझे बड़े आदर और प्रेम के साथ ड्राइंगरूम में ले गई।

टेबिल के पास बैठे हुए उसके पति अखबार पढ़ रहे थे। उसने अंदर जाते ही अपने पति का मुझसे परिचय कराया। फिर मेरी ओर देखकर उसने पति से कहा, इनके विषय में तो मैं अधिक नहीं जानती। पर इतना जानती हूँ कि कल आपने मेरे साथ अत्यंत सज्जनतापूर्ण बर्ताव किया है। आपका पूरा नाम तो अभी कार्ड पर ही देखा । इसके बाद वृजांगना ने अपने पति से शाम के समय का, अँगूठी के खोने का सारा किस्सा कह दिया। मैंने जेब से अँगूठी निकालकर धीरे से वृजांगना के सामने रख दी। अँगूठी पाकर वह कितनी प्रसन्‍न थी, यह उसकी कृतज्ञता-भरी आँखों और उल्लास भरे चेहरे से ही प्रकट हो रहा था। पं० नवलकिशोर जी के चेहरे पर कुछ अधिक भाव परिवर्तन न हुआ। वह केवल जरा-सा मुस्कराकर बोले, और यदि यह अँगूठी न लाते तब क्या करतीं विरजो?
वृजांगना ने विश्वाससूचक स्वर में कहा, लाते कैसे नहीं? अँगूठी तो मैंने इन्हीं के ऊपर छोड़ी थी न? सबके भरोसे थोड़े मैं अपनी यह अँगूठी छोड़ आती?

नवलकिशोर थोड़ा फिर मुस्कगए। हँसी तो कुछ मुझे भी आई। परंतु यह सोचकर कि प्रथम परिचय में ही हँसने की स्वतंत्रता लेना कहीं मेरे पक्ष में अशिष्टता न समझी जाए, मैंने अपनी हँसी रोक ली; पर एक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में बार-बार घूमने लगा। आखिर बिना परिचय के और बिना जान-पहिचान के वृजांगना ने मुझमें कौन-सी बात देखी जो वह मुझ पर इतना विश्वास कर बैठी? चेहरे से मैं नवलकिशोर को पहिचानता था, और वह मुझे; परंतु हमारा आपस में परिचय न था। उस दिन इस प्रकार उस अँगूठी ने हमारा आपस में परिचय कराया। उनके आग्रह से उस दिन मैंने उन्हीं लोगों के साथ चाय पी और उनके अनुरोध से कभी-कभी उनके घर आने भी लगा।

कुछ दिन उन लोगों के यहाँ आने-जाने के बाद, मैंने अनुभव किया, वे पति-पत्नी दोनों मिलनसार, हँसमुख, सीधे-सच्चे और सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं। वृजांगना के विषय में मैंने जितनी तरह की बातें सुन रखी थीं वे मुझे सभी निर्मूल और अनर्गल प्रतीत हुईं। वृजांगना के हृदय की महानता और उसके सद्व्यवहारों ने मेरे हृदय में उसके प्रति श्रद्धा और विश्वास के ही भाव जाग्रत किए। उन दोनों पति-पत्नी के रहन-सहन, बात-व्यवहार को देखते हुए किसी प्रकार के संदेह के लिए कोई स्थान न रह जाता था।

वृजांगना सीधी, भोली और उदार प्रवृत्ति की स्त्री थी। उनके उस छोटे-से घर में प्रेम, विश्वास, आदर और आनंद का ही आधिपत्य था। घृणा, अपमान, ईर्ष्या और डाह का वहाँ तक प्रवेश ही न हो पाता था। वृजांगना की यह धारणा थी कि अपने घर में आया हुआ शत्रु भी अपना अतिथि हो जाता है; और अतिथि का अपमान करना उसकी दृष्टि में बड़ा ही निंदनीय काम था। इसलिए अपने घर में आए हुए उन व्यक्तियों के साथ भी जिनके प्रति वृजांगना के हृदय में किसी प्रकार की श्रद्धा या आदर के भाव न होते थे, वह व्यक्ति बिना जलपान के कदाचित्‌ ही वापिस जाता था। वह बुरे मनुष्यों से घृणा न करके उनकी बुराइयों से घृणा करती थी और भरसक उन्हें किसी प्रकार उन बुराइयों से बचाने का प्रयत्न भी करती। वह संसार के छल-प्रपंचों से परिचित न थी। उसके सामने भगवान्‌ बुद्ध और महात्मा ईसा के महान्‌ आदर्श थे जिनके अनुसार चलकर इस छोटी-सी जिंदगी में वह लोगों के साथ केवल कुछ भलाई ही कर जाना चाहती थी। इसीलिए उसे बहुत कम लोग समझ पाते थे। उसे तो वह समझ सकता था जो उसके पास, बहुत पास, पहुँचकर उसे देखे। दूर से देखने वालों के लिए वृजांगना एक पहेली और बड़ी जटिल पहेली थी, जिसे हल करना कोई साधारण बात न थी। मैं वृजांगना के जीवन के साथ बहुत घुल-मिल गया था। मैंने उसे अच्छी तरह देखा और भली-भाँति पहिचाना था। वृजांगना मानवी नहीं देवी थी। जिसे कदाचित्‌ दैवी अभिशाप के ही कारण कुछ दिनों के लिए मानव-जन्म धारण करना पड़ा था। धीरे-धीरे हमारा मेल-जोल बहुत बढ़ गया। अब मेरे अभिन्‍न हृदय मित्रों में से यदि कोई मेरे बहुत समीप था, तो वह थी वृजांगना। अपने सच्चे स्नेह और आदर से वृजांगना ने मुझे इस तरह बाँध लिया था कि मैं उसके छोटे-छोटे आग्रह और अनुरोध को भी न टाल सकता था। अब उसके अनुरोध से मेरे सभी काम नियमित रूप से होने लगे। उसके सरल प्रेम ने मुझमें नवस्फूर्ति फूँक दी। मैं अपने आप में नए जीवन का अनुभव करने लगा। मुझे ऐसा लगता था जैसे अभी-अभी संसार में प्रवेश किया हो

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